प्रिंट कल्चर और आधुनिक दुनिया
मुद्रण की शुरुआत
- मुद्रण का विकास सबसे पहले चीन मे हुआ।
- चीन में 594 इसवी के बाद से ही लकड़ी के ब्लॉक या तख्ती पर स्याही लगाकर उससे कागज पर प्रिंटिंग की जाती थी।
- उस जमाने में कागज पतले और छेददार होते थे, जिनपर दोनों तरफ छपाई करना संभव नहीं था।
- इसलिए कागज को एकॉर्डियन की तरह मोड़कर सिल दिया जाता था।
- चीन में सिविल सर्विस परीक्षा द्वारा लोगों की बहाली होती थी। इस परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों के लिए भारी मात्रा में पठन सामग्री छापी जाती थी।
- पढ़ने के शौकीन लोगों के लिये कहानी, कविताएँ, जीवनी, आत्मकथा नाटक, आदि भी छपने लगे।
- अमीर वर्ग की महिलाओं में पढ़ने का शौक बढ़ने लगा और कई महिलाओं ने कविताएँ और कहानियाँ भी लिखीं।
जापान में प्रिंट
- मुद्रण की तकनीक को बौद्ध धर्म के प्रचारकों द्वारा जापान लाया गया।
- जापान की सबसे पुरानी किताब है बौद्ध धर्म की किताब डायमंड सूत्र था।
यूरोप में प्रिंट का आना
- महान खोजी मार्को पोलो जब 1295 में चीन से मार्को पोलो लौटा तो अपने साथ वुडब्लॉक वाली छपाई की जानकारी लेकर आया।
- उसके बाद मुद्रण का इस्तेमाल यूरोप के अन्य भागों में भी फैल गया
- पंद्रह सदी के शुरुआत तक यूरोप में तरह तरह के सामानों पर छपाई करने के लिए वुडब्लॉक मुद्रण का जमकर इस्तेमाल होने लगा। इसके परिणामस्वरूप हाथ से लिखी हुई किताबें लगभग गायब ही हो गईं।
गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस
- ग़ुटेनबर्ग ने 1430 के दशक में प्रिंटिंग प्रेस इजाद करके इस क्षेत्र में क्रांति ला दी।
- गुटेनबर्ग के पास हर वह जरूरी ज्ञान और अनुभव था जिसका इस्तेमाल करके मुद्रण तकनीक को और बेहतर बनाया जा सकता था।
इसका असर यह हुआ कि पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध्र में यूरोप के बाजारों में लगभग 2 करोड़ किताबें छापी गईं। सत्रहवीं सदी में यह संख्या बढ़कर 20 करोड़ हो गई।
मुद्रण क्राँति और उसके प्रभाव
पाठकों का एक नया वर्ग
- मुद्रण तकनीक ने पाठकों के एक नये वर्ग को जन्म दिया।
- मुद्रण की मदद से किसी किताब की आसानी से अनेक कॉपी बनाई जा सकती थी, इसलिए किताबें सस्ती होने लगीं। इसके परिणामस्वरूप किताबें अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने लगीं।
- जनसाधारण तक किताबें पहुँचने से पढ़ने की एक नई संस्कृति का विकास हुआ।
- जिन्हें पढ़ना नहीं आता था उन्हें पढ़े लिखे लोग पढ़कर कहानियाँ सुनाया
- साक्षरता बढ़ने के साथ ही लोगों में पढ़ने का जुनून पैदा हो गया।
- किताबें बेचने के लिए किताब की दुकान वाले अकसर फेरीवालों को रखते थे, जो गाँवों में घूम घूम कर किताबें बेचा करते थे।
- पत्रिकाएँ, उपन्यास, पंचांग, आदि सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबें थीं।करते थे।
- मुद्रण के आने से नये तरह के बहस और विवाद को अवसर मिलने लगे।
- लोग धर्म के कुछ स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठाने लगे।
- रुढ़िवादी लोगों को लगता था कि इससे पुरानी व्यवस्था के लिए चुनौती खड़ी हो रही थी।
- जब मार्टिन लूथर किंग ने रोमन कैथोलिक कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपनी किताब छापी तो इससे ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट क्राँति की शुरुआत हुई।
- जब लोग धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाने लगे तो इससे रोम के चर्च को परेशानी होने लगी।
- चर्च ने प्रतिबंधित किताबों की लिस्ट भी रखनी शुरु कर दी।
मुद्रण और फ्रांसीसी क्राँति
- कई इतिहासकारों का मानना है कि मुद्रण संस्कृति से ऐसा माहौल तैयार हुआ जिसके परिणामस्वरूप फ्रांसीसी क्राँति की शुरुआत हुई।
उन्नीसवीं सदी
- उन्नीसवीं सदी में यूरोप में साक्षरता में जबरदस्त वृद्धि होने के कारण पाठकों का एक ऐसा नया वर्ग उभरा जिसमें बच्चे, महिलाएँ और मजदूर शामिल थे।
- उन्नीसवीं सदी के अंत में ऑफसेट प्रिंटिंग विकसित हो चुका था, जिससे छ: रंगों में छपाई की जा सकती थी।
- बिजली से चलने वाले प्रेस भी इस्तेमाल में आने लगे, जिससे छपाई के काम में तेजी आ गई।
भारत में मुद्रण की दुनिया
- मुद्रण तकनीक के आने से पहले भारत में हस्तलिखित किताबों की पुरानी परंपरा रही है।
- इन किताबों को ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर लिखा जाता था।
- लेकिन पांडुलिपी तैयार करने में बहुत मेहनत और समय लगता था। इसलिए ये किताबें आम जनमानस की पहुँच से दूर होती थीं।
- भारत में प्रिंटिंग प्रेस को सबसे पहले सोलहवीं सदी के मध्य में पुर्तगाली धर्मप्रचारक लेकर आये थे।
- भारत में छपने वाली पहली किताबें कोंकणी भाषा में थी।
- तमिल भाषा की पहली पुस्तक कैथोलिक पादरियों द्वारा कोचीन में 1759 में छापी गई। कैथोलिक पादरियों ने मलयालय भाषा की पहली पुस्तक को 1713 में छापा था।
- राजा राममोहन रॉय के करीबी रहे गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गैजेट के नाम से पहला भारतीय अखबार निकालना शुरु किया।
- उत्तरी भारत के उलेमाओं ने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का इस्तेमाल करते हुए धर्मग्रंथों के उर्दू और फारसी अनुवाद छापने शुरु किये। उन्होंने धार्मिक अखबार और गुटके भी निकाले।
प्रिंट और सेंसर
पहले तक उपनिवेशी शासक सेंसर को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे।
शुरु में जो भी थोड़े बहुत नियंत्रण लगाये जाते थे वे भारत में रहने वाले उन अंग्रेजों पर लगाये जाते थे जो कम्पनी के कुशासन की आलोचना करते थे।
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857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी शासकों का रवैया बदलने लगा। आइरिस प्रेस ऐक्ट की तर्ज पर भारत में 1878 में वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट पारित किया गया। इस कानून के अनुसार सरकार समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगा सकती थी। यदि कोई अखबार सरकार के खिलाफ लिखता तो उसे पहले चेतावनी दी जाती थी। यदि चेतावनी का असर नहीं होता था तो प्रेस को बंद कर दिया जाता था और प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया जाता था।- इस कानून के अनुसार सरकार समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगा सकती थी। यदि कोई अखबार सरकार के खिलाफ लिखता तो उसे पहले चेतावनी दी जाती थी। यदि चेतावनी का असर नहीं होता था तो प्रेस को बंद कर दिया जाता था और प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया जाता था।
NCERT Solution
प्रश्न 1: निम्नलिखित के कारण दें:
(a) वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छ्पाई यूरोप में 1295 के बाद आई।
उत्तर: वुडब्लॉक प्रिंट मशहूर इतालवी खोजी मार्को पोलो द्वारा 1295 में यूरोप पहुँचा।
(b) मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
उत्तर: मुद्रण की मदद से मार्टिन लूथर अपने विचारों को जनसाधारण तक पहुँचा पाये थे। इसलिए मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
(c) रोमन कैथलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरु कर दी।
उत्तर: मुद्रण के कारण धर्म की व्याख्या बदलने लगी जिससे रोमन कैथोलिक चर्च की शक्ति खतरे में आने लगी। इसकी रोकथाम करने के लिए रोमन कैथलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरु कर दी।
(d) महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस, और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
उत्तर: मुद्रण ने देश में राष्ट्रवाद की भावना के प्रसार में अहम योगदान दिया था। महात्मा गांधी और कई अन्य राजनेता अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से भी लोगों तक अपनी बात पहुँचाते थे। इसलिए गांधी जी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस, और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
प्रश्न 2: छोटी टिप्पणी में इनके बारे में बताएँ:
(a) गुटेनबर्ग प्रेस
उत्तर: योहान ग़ुटेनबर्ग ने 1430 के दशक में प्रिंटिंग प्रेस इजाद करके इस क्षेत्र में क्रांति ला दी। गुटेनबर्ग को आधुनिक प्रिटिंग तकनीक का जनक माना जाता है। गुटेनबर्ग के पास हर वह जरूरी ज्ञान और अनुभव था जिसका इस्तेमाल करके मुद्रण तकनीक को और बेहतर बनाया जा सकता था। उसने जैतून पेरने की मशीन की तर्ज पर अपने प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल बनाया। अपने साँचों का इस्तेमाल करके गुटेनबर्ग ने छापने के लिए अक्षर बनाये। 1448 इसवी तक गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस काफी कारगर बन चुका था। उसने अपने प्रेस में सबसे पहले बाइबिल को छापा।
(b) छपी किताब को लेकर इरैस्मस के विचार
उत्तर: इरैस्मस उन रुढ़िवादी व्यक्तियों में से थे जिन्हें मुद्रण से होने वाले फायदों से डर लगता था। उन्हें लगता था कि बौद्धिक ज्ञान की अस्मिता के लिये किताबों का छपना खतरनाक था। उन्हें लगता था कि इससे बाजार में घटिया किताबों की बाढ़ आ जायेगी जिससे लोगों और समाज को नुकसान ही होगा।
(c) वर्नाकुलर या देसी प्रेस एक्ट
उत्तर: आइरिस प्रेस ऐक्ट की तर्ज पर भारत में 1878 में वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट पारित किया गया। इस कानून के अनुसार सरकार समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगा सकती थी। यदि कोई अखबार सरकार के खिलाफ लिखता तो उसे पहले चेतावनी दी जाती थी। यदि चेतावनी का असर नहीं होता था तो प्रेस को बंद कर दिया जाता था और प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया जाता था।
प्रश्न 3: उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था:
(a) महिलाएँ
उत्तर: महिलाओं की स्थिति खराब थी और उन्हें कई काम करने की मनाही थी। महिलाओं के जीवन और संवेदनाओं पर कई लेखकों ने लिखना शुरु किया, जिससे मध्यम वर्ग की महिलाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कई उदारवादी पुरुषों ने महिला शिक्षा पर बल देना शुरु किया। कुछ उदारवादी पुरुष अपने घर की महिलाओं के लिए घर में शिक्षा की व्यवस्था करवाते थे। रुढ़िवादी हिंदू और मुसलमान स्त्री शिक्षा के धुर विरोधी थे। ऐसे लोगों को लगता था कि शिक्षा से लड़कियों के दिमाग पर बुरा असर पड़ेगा। ऐसे लोग अपनी बेटियों को धार्मिक ग्रंथ पढ़ने की अनुमति तो देते थे लेकिन अन्य साहित्य पढ़ने से मना करते थे। लेकिन मुद्रण तकनीक के कारण भारत में भी कई महिला लेखिकाओं ने लिखना शुरु कर दिया।
(b) गरीब जनता
उत्तर: उन्नीसवीं सदी में मद्रास के शहरों में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं, जिन्हें चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें। बीसवीं सदी के शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना के परिणामस्वरूप लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी। कई अमीर लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से पुस्तकालय बनाने लगे। गरीब तबके के लोग भी पाठक बन गये और उनमें से कुछ लेखक भी बन गये।
(c) सुधारक
उत्तर: मुद्रण तकनीक ने समाज सुधारकों की बहुत मदद की। मुद्रण के आने से चिंतकों के नये विचार आसानी से जनसाधारण तक पहुँचने लगे। इससे एक नये तरह के संवाद और वाद-विवाद की संस्कृति का जन्म हुआ। इससे कई पुरानी मान्यताओं को तोड़ने का अवसर मिला।
प्रश्न 4: अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?
उत्तर: मुद्रण के कारण ज्ञानोदय के चिंतकों के विचार लोकप्रिय हुए। इन चिंतकों ने परंपरा, अंधविश्वास और निरंकुशवाद की कड़ी आलोचना की। वॉल्तेअर और रूसो को ज्ञानोदय का अग्रणी विचारक माना जाता है। मुद्रण के कारण संवाद और वाद-विवाद की नई संस्कृति का जन्म हुआ। अब आम आदमी भी मूल्यों, संस्थाओं और प्रचलनों पर विवाद करने लगा और स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठाने लगा। इससे कुछ लोगों को लगने लगा कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा।
प्रश्न 5: कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक एक उदाहरण लेकर समझाएँ।
उत्तर: जब मार्टिन लूथर ने धर्म के बारे में अपने नये विचार पेश किये तो इससे रोमन कैथोलिक चर्च को लगने लगा कि उसकी शक्ति क्षीण पड़ जायेगी। इसलिए चर्च किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित था।
भारत के रुढ़िवादी हिंदुओं और मुस्लिमों को लगता था कि पढ़ने से लड़कियों का दिमाग खराब हो जायेगा इसलिए उन्हें पढ़ने लिखने से दूर ही रहना चाहिए। वे इतना चाहते थे कि उनके घर की बेटियाँ केवल धार्मिक किताबें पढ़ें।
प्रश्न 6: उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
उत्तर: उन्नीसवीं सदी में किताबें सस्ती हो चुकी थीं और छोटी किताबें भी छपने लगीं थीं। इन किताबों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के उद्देश्य से चौराहों पर बेचा जाता था। कई स्थानों पर पुस्तकालय भी खुले ताकि लोग आसानी से किताब पढ़ सकें। इससे गरीब वर्ग के लोगों को भी किताबें पढ़ने का मौका मिला और अपना ज्ञान बढ़ाने का मौका मिला। इसका असर यह हुआ कि गरीब तबके से भी कई लोग लेखक बन गये।
प्रश्न 7: मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
उत्तर: मुद्रण संस्कृति के आने से संवाद और वाद-विवाद की नई संस्कृति का विकास हुआ। अब समाज सुधारक और राजनेता अपने विचारों को अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचा सकते थे। गांधी जी नियमित रूप से अखबारों में लिखा करते थे। राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रचार प्रसार के लिये पोस्टर और पर्चियाँ अधिक संख्या में छापना संभव हो पाया था। अब देश के एक कोने के लोग देश के दूसरे कोने के समाचार के बारे में आसानी से जान लेते थे। इस प्रकार मुद्रण संस्कृति नें भारत में राष्ट्रवाद के विकास में मदद की।